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कविता

बंजारा टूटा गिलास और मसला हुआ गुलाब

प्रेमशंकर मिश्र


टूटे गिलास को कुछ और तोड़कर
अपने को कुछ और मोड़कर
बंजारे ने
एक फूलदान बनाया है
(क्‍योंकि वह फूल और फूलदान को समर्पित है)
ओ बासी मसले हुए गुलाब
जाओ
खुद अपनी
और उस‍की सरकारी झुग्‍गी की
शोभा बढ़ाओं।

इर्द गिर्द
दीमकों से बची
कुछ बदबूदार फाइलें है
चरित्र पंजियों की
सड़ी हुई लाशें
जिन्‍हें चाट-चाट कर
कोई शिखझडी औघड़
किसी अजगर के मुँह में अटकी
एक मरघटी मुस्‍कान
उगलता-उगलता
गल चुका है
एकदम बदल चुका है
जाओ

अपनी बची-खुची
मरी हुई सूखी गंध से
चारों ओर
उड़ती हुई चिड़ायँध
का रंग बदलो
पुराना साथ संग बदलो।

लगता है
विश्‍वासों ने तुम्‍हें छला है
तुम्‍हारे सामने ही
रोशनी के नाम पर
कोई जलता है
गलती पिघलती सदी का
बचा हुआ
धूप का
यह एक टूकड़ा भी
तुम्‍हारे लिए एक बला है।

पर ओ खूबसूरत दिखने वाले
बीतगंधी गुलाब !
हड्डियों वाले हाथ
और
गुलदस्‍ते के साथ
का फर्क पहचानों।

भीड़ :
भीड़ से वह भी डरता है
भीड़ स्‍वयं में एक बलबा है
जमीन पर छाये हुए
आसमान का मलबा है
मलबा
जिसमें
चाँद का फूटा हुआ नसीब

और न जाने कितनी
चिनगारियों का सलीब है
ये हजार-हजार आँखें
किसी भुतहे देवराज की
शापित लिजलिजी तरबीत है।

शुक्र है
कि चिंताओं के इस ऋतुचक से
किसी तरह छटककर
तुम अलग
जिंदगी की
इस नई राह पर
आ पड़े
जहाँ टूटा गिलास
कुछ नहीं तो
कम से कम
भगोड़ों के पैरों में
चुभने के लिए पड़ा था
और पास ही आड़ में
वह स्‍वयं ही खड़ा था।
वह कहता है
फिर कहता है
और आखिरी बार कहता है
छोड़ो जूड़े की आस
चूमो टूटा गिलास बदलो फिर से लिबास।

समय :
समय भला किससे हारा है
जहाँ कुछ नहीं
वहाँ रेत का सहारा है
और
तुम्‍हारे लिए
टूटा गिलास घिसा हुआ
अब

सिर्फ यह बनजारा है।


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